दक्षिण-दक्षिण सहयोग के लिए संयुक्त राष्ट्र दिवस
(United Nations Day for South-South Cooperation)
नई अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की स्थापना के लिए विकसित और विकासशील देशों
में उत्तर-दक्षिण संवाद की शुरुआत हुई। परन्तु विकसित राष्ट्रों के अपेक्षापूर्ण व
अड़ियल व्यवहार के कारण उत्तर-दक्षिण सहयोग की बार सिरे नहीं चढ़ सकी। विकाशशील
देशों पर ऋणों का भार लगातार बढ़ने लगा। उन्हें प्राप्त होने वाली अधिकतर विदेशी
सहायता का हिस्सा ब्याज के भुगतान में ही खर्च होने लगा और अंतरराष्ट्रीय आर्थिक
सम्बन्ध अधिक भेदभावपूर्ण व जटिल होते गए। विकासशील देश यह महसूस करने लगे कि
उत्तर दक्षिण सहयोग की बात करना उनके हितों को कोई फायदा नहीं पहुंचा सकता। इसलिए
उन्हें दक्षिण-दक्षिण सहयोग (South-South Co-operation) की ही बात करनी चाहिए। इसलिए विकासशील देशों ने
दक्षिण के गरीब व अल्प-विकसित देशों में ही सहयोग के आधार तलाशने शुरू कर दिए। इसी
से दक्षिण-दक्षिण संवाद या सहयोग का नारा बुलन्द हुआ।
दक्षिण-दक्षिण सहयोग का अर्थ
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद विकासशील देशों के लिए ‘दक्षिण’ शब्द का प्रयोग किया जाने लगा। 1945 के बाद समस्त विश्व राजनैतिक शब्दावली में दो
भागों - उत्तर (विकसित) तथा दक्षिण (विकासशील) में बंट गया। उत्तर में सभी
साम्राज्यवादी ताकतें या विकसित धनी देश थे। 'दक्षिण' में साम्राज्यवादी शोषण के शिकार रहे गरीब देश
थे। जब इन देशों ने स्वतन्त्रता प्राप्त की तो इन्हें अपने को आर्थिक पिछड़ेपन की
समस्या से ग्रस्त पाया। स्वतन्त्र अंतरराष्ट्रीय संबंधों के निर्वहन में भी आर्थिक
साधनों की कमी इनके आड़े आई। ऐसी स्थिति में अंतरराष्ट्रीय सम्बन्धों को अधिक
प्रासांगिक बनाने के लिए इन्होंने नई अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था (NIEO)
की स्थापना के लिए उत्तर के देशों से उदार रवैया
अपनाने का आग्रह किया और इसके परिणामस्वरूप उत्तर-दक्षिण सहयोग के प्रयास शुरू
हुए। लेकिन सकारात्मक परिणाम न निकलने से विकासशील देशों ने विकसित देशों के साथ
सहयोग की बजाय आपसी सहयोग (दक्षिण-दक्षिण सहयोग) की शुरुआत की। इसके लिए आपसी
विचार-विमर्श की प्रक्रिया शुरू हुई अर्थात् दक्षिण-दक्षिण संवाद का जन्म हुआ।
इसके कारण विकासशील देशों में अंतर्निर्भरता के प्रयास तेज हुए।
विकासशील देशों को दक्षिण-दक्षिण संवाद की प्रक्रिया द्वारा आत्मनिर्भर बनाने
तथा उनकी विकसित देशों पर निर्भरता कम करने की प्रक्रिया दक्षिण-दक्षिण सहयोग के
नाम से जानी जाती है। दक्षिण-दक्षिण सहयोग के परिणामस्वरूप विकासशील देशों में एक
नए युग का सूत्रपात हुआ। इसके अंतर्गत तकनीकी आदान-प्रदान की प्रक्रिया तेज हुई।
अति-पिछड़े हुए राष्ट्र भी इसका लाभ उठाकर अधिक विकासशील देशों की श्रेणी में
शामिल होने लगे। आज दक्षिण-दक्षिण सहयोग अंतरराष्ट्रीय सम्बन्धों को प्रभावित करने
वाला प्रमुख तत्व है।
दक्षिण-दक्षिण सहयोग की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
दक्षिण-दक्षिण सहयोग का आरम्भ 1968 में आयोजित अंकटाड सम्मेलन (नई दिल्ली) से माना
जाता है। इसके बाद 1970 में लुसाका सम्मेलन में भी इसकी आवश्यकता पर बल दिया गया। 1974 में संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा द्वारा
बुलाए गए विशेष सत्र में नई अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के आह्नान में इसका विशेष
जिक्र हुआ। 1976 में गुटनिरपेक्ष सम्मेलन तथा चौथे अंकटाड सम्मेलन में विकासशील देशों के आपसी
व्यापार तथा सामूहिक अन्तर्निर्भरता की आवश्यकता पर बल दिया गया। 1981 में काराकास सम्मेलन में भी इसका उल्लेख हुआ।
इसी वर्ष नई दिल्ली में 44 देशों के सम्मेलन में भी दक्षिण-दक्षिण संवाद और सहयोग की
बात कही गई। इसमें सऊदी अरब, कुवैत, संयुक्त अरब अमीरात जैसे धनी देश बुलाए गए थे ताकि वे अपने
गरीब भाईयों के लिए कुछ सहायता दें। लेकिन इनकी भूमिका अधिक सहयोग की नहीं रही।
इसके बाद अक्टूबर, 1982 में न्यूयॉर्क में ग्ग्.77 (विकासशील देशें का समूह) के देशों ने आपसी
व्यापार में वृद्धि करने की आवश्यकता पर जोर दिया। 1986 में गुटनिरपेक्ष देशों के हरारे सम्मेलन में
उत्तर-दक्षिण संवाद की बजाय दक्षिण-दक्षिण संवाद पर अधिक ध्यान दिया गया। इसमें
राबर्ट मुंगावे ने स्पष्ट कहा कि दक्षिण-दक्षिण सहयोग और सामूहिक आत्मनिर्भरता के
बिना अंतरराष्ट्रीय सम्बन्धों में सुधार नहीं हो सकता। इसके बाद उत्तरी कोरिया की
राजधानी प्योंगयांग में हुई विकासशील देशों के वित्त मंत्रियों की बैठक (1987)
में भी दक्षिण-आयोग का गठन करके विकासशील देशों
के आपसी सहयोग को नई दिशा देने का प्रयास किया गया। इसके बाद 1991 में G-15 (विकासशील देशों का समूह) के काराकास सम्मेलन में
भी निर्धन राष्ट्रों के आपसी सहयोग को बढ़ाने की आवश्यकता महसूस की गई। इसके बाद
हिमतक्षेस (हिन्द महासागर तटीय क्षेत्रीय सहयोग संगठन) की स्थापना 1997 में हुई। इसने भी तृतीय विश्व के देशों में
आपसी सहयोग बढ़ाने पर जोर दिया। आज सार्क, आसियान क्.8ए G-15ए G-77 आदि संगठन भी इस दिशा में कार्य कर रहे हैं और
इनके प्रयास निरंतर सफलता की ओर अग्रसर हैं।
दक्षिण-दक्षिण सहयोग के प्रयास
दक्षिण-दक्षिण सहयोग को बढ़ावा देने वाले प्रमुख मंच अंकटाड, समूह-77, NAM, G-15, दक्षिण आयोग, आसियान, सार्क, हिमतक्षेस तथा डी-8 हैं। इनके माध्यम से दक्षिण-दक्षिण संवादों का
विकास हुआ और विकासशील देशों के आपसी सहयोग में वृद्धि हुई। इन संस्थाओं के
प्रयासों का वर्णन निम्नलिखित है-
अंकटाड सम्मेलन
(UNCT AD Conference)
समूह-77 (G-77)
गुट-निरपेक्ष
आन्दोलन के शिखर सम्मेलन
जी-15 सम्मेलन
दक्षिण आयोग
आसियान (ASEAN)
सार्क (SAARC)
हिमतक्षेस (IORARC)
डी-8 शिखर सम्मेलन
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें