शनिवार, 26 सितंबर 2020

ईश्वर चन्द्र विद्यासागर (Ishwar Chandra Vidyasagar)

 


ईश्वर चन्द्र विद्यासागर

(Ishwar Chandra Vidyasagar)

ईश्वर चन्द्र विद्यासागर (26 सितम्बर 1820 – 29 जुलाई 1899) उन्नीसवीं शताब्दी के बंगाल के प्रसिद्ध दार्शनिक, शिक्षाविद, समाज सुधारक, लेखक, अनुवादक, मुद्रक, प्रकाशक, उद्यमी और परोपकारी व्यक्ति थे। वे बंगाल के पुनर्जागरण के स्तम्भों में से एक थे। उनके बचपन का नाम ईश्वर चन्द्र बन्दोपाध्याय था। संस्कृत भाषा और दर्शन में अगाध पाण्डित्य के कारण विद्यार्थी जीवन में ही संस्कृत कॉलेज ने उन्हें 'विद्यासागर' की उपाधि प्रदान की थी।

वे नारी शिक्षा के समर्थक थे। उनके प्रयास से ही कलकत्ता में एवं अन्य स्थानों में बहुत अधिक बालिका विद्यालयों की स्थापना हुई।

उस समय हिन्दु समाज में विधवाओं की स्थिति बहुत ही शोचनीय थी। उन्होनें विधवा पुनर्विवाह के लिए लोकमत तैयार किया। उन्हीं के प्रयासों से 1856 ई. में विधवा-पुनर्विवाह कानून पारित हुआ। उन्होंने अपने इकलौते पुत्र का विवाह एक विधवा से ही किया। उन्होंने बाल विवाह का भी विरोध किया।

बांग्ला भाषा के गद्य को सरल एवं आधुनिक बनाने का उनका कार्य सदा याद किया जायेगा। उन्होने बांग्ला लिपि के वर्णमाला को भी सरल एवं तर्कसम्मत बनाया। बँगला पढ़ाने के लिए उन्होंने सैकड़ों विद्यालय स्थापित किए तथा रात्रि पाठशालाओं की भी व्यवस्था की। उन्होंने संस्कृत भाषा के प्रचार-प्रसार के लिए प्रयास किया। उन्होंने संस्कृत कॉलेज में पाश्चात्य चिन्तन का अध्ययन भी आरम्भ किया।

सन 2004 में एक सर्वेक्षण में उन्हें 'अब तक का सर्वश्रेष्ठ बंगाली' माना गया था।

जीवन परिचय

ईश्वर चन्द्र विद्यासागर का जन्म बंगाल के मेदिनीपुर जिले के वीरसिंह गाँव में एक अति निर्धन ब्राम्हण परिवार में हुआ था।पिता का नाम ठाकुरदास वन्द्योपाध्याय था। तीक्ष्णबुद्धि पुत्र को गरीब पिता ने विद्या के प्रति रुचि ही विरासत में प्रदान की थी। नौ वर्ष की अवस्था में बालक ने पिता के साथ पैदल कोलकाता जाकर संस्कृत कालेज में विद्यारम्भ किया। शारीरिक अस्वस्थता, घोर आर्थिक कष्ट तथा गृहकार्य के बावजूद ईश्वरचंद्र ने प्रायः प्रत्येक परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया। 1841 में विद्यासमाप्ति पर फोर्ट विलियम कालेज में पचास रुपए मासिक पर मुख्य पण्डित पद पर नियुक्ति मिली। तभी 'विद्यासागर' उपाधि से विभूषित हुए। लोकमत ने 'दानवीर सागर' का सम्बोधन दिया। 1846 में संस्कृत कालेज में सहकारी सम्पादक नियुक्त हुए; किन्तु मतभेद पर त्यागपत्र दे दिया। 1851 में उक्त कालेज में मुख्याध्यक्ष बने। 1855 में असिस्टेंट इंस्पेक्टर, फिर पाँच सौ रुपए मासिक पर स्पेशल इंस्पेक्टर नियुक्त हुए।1858 ई. में मतभेद होने पर फिर त्यागपत्र दे दिया। फिर साहित्य तथा समाजसेवा में लगे। 1880 ई. में सी.आई.ई. का सम्मान मिला।

आरम्भिक आर्थिक संकटों ने उन्हें कृपण प्रकृति (कंजूस) की अपेक्षा 'दयासागर' ही बनाया। विद्यार्थी जीवन में भी इन्होंने अनेक विद्यार्थियों की सहायता की। समर्थ होने पर बीसों निर्धन विद्यार्थियों, सैकड़ों निस्सहाय विधवाओं, तथा अनेकानेक व्यक्तियों को अर्थकष्ट से उबारा। वस्तुतः उच्चतम स्थानों में सम्मान पाकर भी उन्हें वास्तविक सुख निर्धनसेवा में ही मिला। शिक्षा के क्षेत्र में वे स्त्रीशिक्षा के प्रबल समर्थक थे। श्री बेथ्यून की सहायता से गर्ल्स स्कूल की स्थापना की जिसके संचालन का भार उनपर था। उन्होंने अपने ही व्यय से मेट्रोपोलिस कालेज की स्थापना की। साथ ही अनेक सहायताप्राप्त स्कूलों की भी स्थापना कराई। संस्कृत अध्ययन की सुगम प्रणाली निर्मित की। इसके अतिरिक्त शिक्षाप्रणाली में अनेक सुधार किए। समाजसुधार उनका प्रिय क्षेत्र था, जिसमें उन्हें कट्टरपंथियों का तीव्र विरोध सहना पड़ा, प्राणभय तक आ बना। वे विधवाविवाह के प्रबल समर्थक थे। शास्त्रीय प्रमाणों से उन्होंने विधवाविवाह को बैध प्रमाणित किया। पुनर्विवाहित विधवाओं के पुत्रों को 1865 के एक्ट द्वारा वैध घोषित करवाया। अपने पुत्र का विवाह विधवा से ही किया। संस्कृत कालेज में अब तक केवल ब्राह्मण और वैद्य ही विद्योपार्जन कर सकते थे, अपने प्रयत्नों से उन्होंने समस्त हिन्दुओं के लिए विद्याध्ययन के द्वार खुलवाए।

साहित्य के क्षेत्र में बँगला गद्य के प्रथम प्रवर्त्तकों में थे। उन्होंने 52 पुस्तकों की रचना की, जिनमें 17 संस्कृत में थी, पाँच अँग्रेजी भाषा में, शेष बँगला में। जिन पुस्तकों से उन्होंने विशेष साहित्यकीर्ति अर्जित की वे हैं, 'वैतालपंचविंशति', 'शकुंतला' तथा 'सीतावनवास'। इस प्रकार मेधावी, स्वावलंबी, स्वाभिमानी, मानवीय, अध्यवसायी, दृढ़प्रतिज्ञ, दानवीर, विद्यासागर, त्यागमूर्ति ईश्वरचंद्र ने अपने व्यक्तित्व और कार्यक्षमता से शिक्षा, साहित्य तथा समाज के क्षेत्रों में अमिट पदचिह्न छोड़े।

वे अपना जीवन एक साधारण व्यक्ति के रूप में जीते थे लेकिन लेकिन दान पुण्य के अपने काम को एक राजा की तरह करते थे। वे घर में बुने हुए साधारण सूती वस्त्र धारण करते थे जो उनकी माता जी बुनती थीं। वे झाडियों के वन में एक विशाल वट वृक्ष के सामान थे। क्षुद्र व स्वार्थी व्यवहार से तंग आकर उन्होंने अपने परिवार के साथ संबंध विच्छेद कर दिया और अपने जीवन के अंतिम १८ से २० वर्ष बिहार (अब झारखण्ड) के जामताड़ा जिले के करमाटांड़ में सन्ताल आदिवासियों के कल्याण के लिए समर्पित कर दिया। उनके निवास का नाम 'नन्दन कानन' (नन्दन वन) था। उनके सम्मान में अब करमाटांड़ स्टेशन का नाम 'विद्यासागर रेलवे स्टेशन' कर दिया गया है।

वे जुलाई 1899 में दिवंगत हुए। उनकी मृत्यु के बाद रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने कहा, “लोग आश्चर्य करते हैं कि ईश्वर ने चालीस लाख बंगालियों में कैसे एक मनुष्य को पैदा किया!उनकी मृत्यु के बाद, उनके निवास नन्दन काननको उनके बेटे ने कोलकाता के मलिक परिवार बेच दिया। इससे पहले कि नन्दन काननको ध्वस्त कर दिया जाता, बिहार के बंगाली संघ ने घर-घर से एक एक रूपया अनुदान एकत्रित कर 29 मार्च 1974 को उसे खरीद लिया। बालिका विद्यालय पुनः प्रारम्भ किया गया, जिसका नामकरण विद्यासागर के नाम पर किया गया है। निःशुल्क होम्योपैथिक क्लिनिक स्थानीय जनता की सेवा कर रहा है। विद्यासागर के निवास स्थान के मूल रूप को आज भी व्यवस्थित रखा गया है। सबसे मूल्यवान सम्पत्ति लगभग डेढ़ सौ वर्ष पुरानी पालकीहै जिसे स्वयं विद्यासागर प्रयोग करते थे।

सुधारक के रूप में

सुधारक के रूप में इन्हें राजा राममोहन राय का उत्तराधिकारी माना जाता है। इन्होंने विधवा पुनर्विवाह के लिए आन्दोलन किया और सन 1856 में इस आशय का अधिनियम पारित कराया। 1856-60 के मध्य इन्होने 25 विधवाओं का पुनर्विवाह कराया। इन्होने नारी शिक्षा के लिए भी प्रयास किए और इसी क्रम में 'बैठुने' स्कूल की स्थापना की तथा कुल 35 स्कूल खुलवाए।

विद्यासागर रचित ग्रन्थावली

शिक्षामूलक ग्रन्थ

बर्णपरिचय (प्रथम और द्वितीय भाग ; 1855)

ऋजुपाठ (प्रथम, द्वितीय और तृतीय भाग ; 1851-52)

संस्कृत ब्याकरणेर उपक्रमणिका (1851)

ब्याकरण कौमुदी (1853)

अनुवाद ग्रन्थ

हिन्दी से बांग्ला

बेताल पञ्चबिंशति (1847 ; लल्लूलाल कृत बेताल पच्चीसी पर आधारित)

संस्कृत से बांग्ला

शकुन्तला (दिसम्बर, 1854 ; कालिदास के अभिज्ञानशकुन्तलम् पर आधारित)

सीतार बनबास (1860 ; भवभूति के उत्तर रामचरित और वाल्मीकि रामायण के उत्तराकाण्ड पर आधारित)

महाभारतर उपक्रमणिका (1860; वेद व्यास के मूल महाभारत की उपक्रमणिका अंश पर आधारित)

बामनाख्यानम् (1873 ; मधुसूदन तर्कपञ्चानन रचित 117 श्लोकों का अनुवाद)

अंग्रेजी से बांग्ला

बाङ्गालार इतिहास (1848 ; मार्शम्यान कृत हिष्ट्री आफ बेङ्गाल पर आधारित)

जीवनचरित (1849 ; चेम्बार्छ के बायोग्राफिज पर आधारित)

नीतिबोध (प्रथम सात प्रस्ताव – 1851; रबार्ट आरु उइलियाम चेम्बार्चर मराल क्लास बुक अवलम्बनत रचित)

बोधोदय (1851; चेम्बार्चर रुडिमेन्ट्स आफ नालेज पर आधारित)

कथामाला (1856; ईशब्स फेबलस पर आधारित)

चरिताबली (1857; विभिन्न अंग्रेजी ग्रन्थ और पत्र-पत्रिकाओं पर आधारित)

भ्रान्तिबिलास (1861; शेक्सपीयर के कमेडी आफ एरर्स' पर आधारित)

अंग्रेजी ग्रन्थ

पोएटिकल सेलेक्शन्स

सेलेक्शन्स फ्रॉम गोल्डस्मिथ

सेलेक्शन्स फ्रॉम इंग्लिश लिटरेचर

मौलिक ग्रन्थ

संस्कृत भाषा आरु संस्कृत साहित्य बिषयक प्रस्ताब (1853)

बिधबा बिबाह चलित हओया उचित किना एतद्बिषयक प्रस्ताब (1855)

बहुबिबाह रहित हओया उचित किना एतद्बिषयक प्रस्ताब (1871)

अति अल्प हइल (1873)

आबार अति अल्प हइल (1873)

ब्रजबिलास (1884)

रत्नपरीक्षा (1886)

प्रभावती सम्भाषण (सम्बत 1863)

जीवन-चरित (1891 ; मरणोपरान्त प्रकाशित)

शब्दमञ्जरी (1864)

निष्कृति लाभेर प्रयास (1888)

भूगोल खगोल बर्णनम् (1891 ; मरणोपरान्त प्रकाशित)

सम्पादित ग्रन्थ

अन्नदामङ्गल (1847)

किरातार्जुनीयम् (1853)

सर्वदर्शनसंग्रह (1853-58)

शिशुपालबध (1853)

कुमारसम्भवम् (1862)

कादम्बरी (1862)

वाल्मीकि रामायण (1862)

रघुवंशम् (1853)

मेघदूतम् (1869)

उत्तरचरितम् (1873)

अभिज्ञानशकुन्तलम् (1871)

हर्षचरितम् (1883)

पद्यसंग्रह प्रथम भाग (1888; कृत्तिबासी रामायण से संकलित)

पद्यसंग्रह द्बितीय भाग (1890; रायगुणाकर भारतचन्द्र रचित अन्नदामङ्गल से संकलित)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें