आशापूर्णा
देवी
Ashapurna
Devi
आशापूर्णा
देवी (8 जनवरी 1909-13 जुलाई 1995) भारत से बांग्ला भाषा की कवयित्री और
उपन्यासकार थीं, जिन्होंने 13 वर्ष की अवस्था से
लेखन प्रारम्भ किया और आजीवन साहित्य रचना से जुड़ीं रहीं। गृहस्थ जीवन के सारे
दायित्व को निभाते हुए उन्होंने लगभग दो सौ कृतियाँ लिखीं, जिनमें
से अनेक कृतियों का भारत की लगभग सभी भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। उनके सृजन में
नारी जीवन के विभिन्न पक्ष, पारिवारिक जीवन की समस्यायें,
समाज की कुंठा और लिप्सा अत्यंत पैनेपन के साथ उजागर हुई हैं। उनकी
कृतियों में नारी का वयक्ति-स्वातन्त्र्य और उसकी महिमा नई दीप्ति के साथ मुखरित
हुई है। उनकी प्रमुख रचनाएँ हैं स्वर्णलता, प्रथम
प्रतिश्रुति, प्रेम और प्रयोजन, बकुलकथा,
गाछे पाता नील, जल, आगुन
आदि। उन्हें 1976 में ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। यह पुरस्कार
प्राप्त करने वाली वे पहली महिला हैं।
साहित्यिक
जीवन
आशापूर्णा
देवी की कर्मभूमि पश्चिमी बंगाल थी। उनका पहला कहानी-संकलन "जल और
जामुन" 1940 में यहीं से प्रकाशित हुआ था। उस समय यह कोई नहीं जानता था कि
बांग्ला ही नहीं, भारतीय कथा साहित्य
के मंच पर एक ऐसे नक्षत्र का आविर्भाव हुआ है जो दीर्घकाल तक समाज की कुंठा,
संकट, संघर्ष, जुगुप्सा
और लिप्सा-सबको समेटकर सामाजिक संबंधों के हर्ष, उल्लास और
उत्कर्ष को नया आकाश प्रदान करेगा। उनकी कहानियाँ पात्र, संवाद
या घटनाओं का जमघट नहीं हैं, परंतु जीवन की किसी अनकही
व्याख्या को व्यंजित करती हैं और इस रूप में उनकी एकदम अलग पहचान है।
उनकी अपनी
एक विशिष्ट शैली थी। चरित्रों का रेखांकन और उनके मनोभावों को व्यक्त करते समय वे
यथार्थवादिता को बनाये रखती थीं। सच को सामने लाना उनका उद्देश्य रहता था। उनका
लेखन आशावादी दृष्टिकोण लिए हुए था। उनके उपन्यास मुख्यतः नारी केन्द्रित रहे हैं।
उनके उपन्यासों में जहाँ नारी मनोविज्ञान की सूक्ष्म अभिव्यक्ति और नारी के स्वभाव
उसके दर्प, दंभ, द्वंद
और उसकी दासता का बखूबी चित्रण किया हुआ है वहीँ उनकी कथाओं में पारिवारिक प्रेम
संबंधों की उत्कृष्टता दृष्टिगोचर होती है। उनकी कथाओं में तीन प्रमुख विशेषताएँ
परिलक्षित होती हैं – वक्तव्य प्रधान, समस्या
प्रधान और आवेग प्रधान। उनकी कथाएं हमारे घर संसार का विस्तार हैं। जिसे वे कभी
नन्ही बेटी के रूप में तो कभी एक किशोरी के रूप में तो कभी ममत्व से पूर्ण माँ के
रूप में नवीन जिज्ञासा के साथ देखती हैं।
उनको अपनी
प्रतिभा के कारण उन्हें समकालीन बांग्ला उपन्यासकारों की प्रथम पंक्ति में
गौरवपूर्ण स्थान मिला। उनके लेखन की विशिष्टता उनकी एक अपनी ही शैली है। कथा का
विकास,
चरित्रों का रेखाकंन, पात्रों के मनोभावों से
अवगत कराना, सबमें वह यथार्थवादिता को बनाए रखते हुए अपनी
आशामयी दृष्टि को अभिव्यक्ति देती हैं। इसके पीछे उनकी शैली विद्यमान रहती है।
वे यथार्थवादी, सहज और संतुलित थी। सीधे और कम शब्दों में
बात को ज्यों का त्यों कह देना उनकी विशेषता थी। उनकी निरीक्षण शक्ति गहन और पैनी
थी और विचारों में गंभीरता थी। पूर्वाग्रहों से रहित उनका दृष्टिकोण अपने नाम के
अनुरूप आशावादी था। वे मानवप्रेमी थी। वे विद्रोहिणी थी। ‘मैं
तो सरस्वती की स्टेनो हूँ’ उनका यह कथन उनकी रचनाशीलता का
परिचय देता है। उन्होने अपने ८७ वर्ष के दीर्घकाल में १०० से भी अधिक औपन्यासिक
कृतियों की रचना की, जिनके माध्यम से उन्होंने समाज के
विभिन्न पक्षों को उजागर किया। उनके विपुल कृतित्व का उदाहरण उनकी लगभग २२५
कृतियां हैं। उनकी समग्र रचनाओं ने बंकिम, रवीन्द्र और शरत्
की त्रयी के बाद बंगाल के पाठक वर्ग और प्रबुद्ध महिला पाठकों को सर्वाधिक
प्रभावित और समृद्ध किया है।
कृतियाँ
आशापूर्णा
देवी के विपुल कृतित्व का उदाहरण उनकी लगभग 225 कृतियां हैं। 'प्रथम प्रतिश्रुति' के लिए उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार
प्राप्त हुआ। लगभग पच्चीस वर्ष पूर्व दूरदर्शन में, 'प्रथम
प्रतिश्रुति' नामक टीवी प्रसारित हुआ था। अपने जीवन की
घटनाओं के बाद की कथा, आशापूर्णा देवी ने, दो अन्य उपन्यास, 'सुवर्णलता' और
'बकुल कथा' में लिखा है। उनकी कुछ
महत्वपूर्ण पुस्तकें क्रमश: अधूरे सपने, अनोखा प्रेम,
अपने अपने दर्पण में, अमर प्रेम, अविनश्वर, आनन्द धाम, उदास मन,
कभी पास कभी दूर, कसौटी, काल का प्रहार, किर्चियाँ, कृष्ण
चूड़ा का वृक्ष, खरीदा हुआ दु:ख, गलत
ट्रेन में, चश्में बदल जाते हैं, चाबीबन्द
सन्दूक, चैत की दोपहर में, जीवन संध्या,
तपस्या, तुलसी, त्रिपदी,
दृश्य से दृश्यान्तर, दोलना, न जाने कहाँ कहाँ, पंछी उड़ा आकाश, प्यार का चेहरा, प्रथम प्रतिश्रुति, प्रारब्ध, बकुल कथा, मंजरी,
मन की आवाज़, मन की उड़ान, मुखर रात्रि, ये जीवन है, राजकन्या,
लीला चिरन्तन, विजयी वसंत, विश्वास अविश्वास, वे बड़े हो गए, शायद सब ठीक है, श्रावणी, सर्पदंश,
सुवर्णलता आदि हिन्दी में उपलब्ध है।
पुरस्कार/सम्मान
लीला
पुरस्कार,
कलकत्ता विश्वविद्यालय से (1954)
टैगोर
पुरस्कार (1964)
भूटान
मोहिनी दासी स्वर्ण पदक (1966)
बूँद
मेमोरियल पुरस्कार, पश्चिम बंगाल सरकार
से (1966)
पद्मश्री
(1976)
ज्ञानपीठ
पुरस्कार,
प्रथम प्रतिश्रुति के लिए (1976)
हरनाथ घोष
पदक,
बंगीय साहित्य परिषद से (1988)
जगतरानी
स्वर्ण पदक, कलकत्ता विश्वविद्यालय से
(1993)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें