विश्व पोलियो दिवस
(World Polio Day)
पूरे विश्व में
प्रत्येक वर्ष 24 अक्टूबर को विश्व पोलियो दिवस
मनाया जाता है। जोनास सॉक ने पोलियो के खिलाफ़ वैक्सीन का विकास किया था। यह दिवस
उन्हें श्रद्धांजलि देने के लिए मनाया जाता है। वर्ष 2016 में
इस दिवस का मुख्य विषय-‘एक दिन एक फोकसः पोलियो समाप्त’
था। और वर्ष 2019 के लिए इसका विषय वन डे,
वन फोकस: एंडिंग पोलियो है। भारत सरकार ने वर्ष 1995 में पोलियो उन्मूलन अभियान की शुरूआत की। 27 मार्च,
2014 को विश्व स्वास्थ्य संगठन (W.H.O) ने
भारत को पोलियो मुक्त घोषित किया।
पोलियोमेलाइटिस
बहुतृषा, जिसे अक्सर पोलियो या 'पोलियोमेलाइटिस'
भी कहा जाता है एक विषाणु जनित भीषण संक्रामक रोग है जो आमतौर पर एक
व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति मेधाव विष्ठा या खाने के माध्यम से फैलता है। इसे 'बालसंस्तंभ' (शिशु पक्षाघात), 'बालपाशाघात', बहुतृषा (पोलियोमाइलाइटिस) और 'बहुतृषा एंसेफलाइटिस' (पोलियोएन्सेफलाइटिस) भी कहते
हैं। यह एक उग्र स्वरूप का बच्चों में होनेवाला रोग है, जिसमें
मेरुरज्जु (रीढ़ की हड्डी) के अष्टश्रृंग (पूर्वकाल सींग) और उसके अंदर स्थित धूसर
वस्तु में अपभ्रंश (अध: पतन) हो जाता है और इसके कारण चालकपक्षाघात (मोटर
पक्षाघात) हो जाता है।
पोलियो शब्द
ग्रीक भाषा के पोलियो (शब्दολ और) और मीलोन (μόςλ यूनानी) सेट्टीन्न है जिसका अर्थ क्रमशः: स्लेटी
(ग्रे) और "मेरुरज्जु" होता है साथ मे जुड़े आइटमिस का अर्थ शोथ होता है
तीनो को मिला देने से बहुतृषा या पोलियोमेरुरज्जुशोथ बन जाता है। बहुतृषा संक्रमण
के लगभग 90% मामलों में कोई लक्षण नहीं होते हैं हालांकि,
अगर यह विषाणु व्यक्ति के रक्त प्रवाह में प्रवेश कर ले तो गंभीर
व्यक्ति मे लक्षणों की एक पूरी श्रृंखला दिख सकती है।
1% से भी कम मामलों में विषाणु केंद्रीय तंत्रिका तंत्र में प्रवेश कर जाता
है और सबसे पहले मोटर स्नायु (न्यूरॉन्स) को उत्तेजित और नष्ट करता है जिसके कारण
मांसपेशियों में कमजोरी आ जाती है और व्यक्ति को तीव्र पक्षाघात हो जाता है।
पक्षाघात के विभिन्न प्रकार इस पर निर्भर करते हैं कि यहमे कौन सी तंत्रिका शामिल
हैं। मेरुरज्जु का बहुतृषा का सबसे आम रूप है, जिसकी विशेषता
असममित पक्षाघात होती है जिसमें अक्सर पैर संक्रमण होते हैं। बुलबर बहुतृषा से
कपालीय तंत्र (कपाल तंत्रिकाओं) द्वारा स्फूर्तित मांसपेशियों मे कमजोरी आ जाती
है। बुलबोस्पाइनल बहुतृषा बुलबर और स्पाइनल (मेरुरज्जु) के पक्षाघात का सम्मिलित
रूप है
बहुतृषा को सबसे
पहले 1840 में जैकब हाइन ने एक विशिष्ट परिस्थिति के रूप में
आभाना, पर 1908 में कार्ल लैंडस्टीनर
द्वारा इसके कारण आलोचक, पोलियोविष वायरस की पहचान की गई थी।
हालांकि 19 वीं शताब्दी से पहले लोगों को आशीष के एक। प्रधान
महामारी के रूप से अनजान थे, लेकिन 20
वीं सदी मे बहुतृषा बचपन की सबसे भयावह बीमारी बन के साथ। बहुतृषा की महामारी ने
हजारों लोगों को अपंग कर दिया जिनमे ज्यादातर छोटे बच्चे थे और यह रोग मानव इतिहास
मे घटित सबसे अधिक पक्षाघात और मृत्यु का कारण बना। बहुतृषा हजारों वर्षों से
चुपचाप एक स्थानिकमारी वाले रोगज़नक़ के रूप में मौजूद था, पर
1880 के दशक मे यह एक बड़ी महामारी के रूप मे यूरोप में उदित
हुआ और इसके के तुरंत बाद, यह एक व्यापक महामारी के रूप मे
अमेरिका भी फैल गया है।
1910 तक, ज्यादातर दुनिया के हिस्से इसकी चपेट मे आ गये
थे और दुनिया भर मे इसके शिकारों मे एक गेमिंग वृद्धि दर्ज की गयी थी; विशेषकर शहरों में गर्मी के महीनों के दौरान यह एक घटना बन गई। यह महामारी,
जिसने हज़ारों बच्चों और बड़ों को अपाहिज बना दिया था, इसके टीके के विकास की दिशा में प्रेरणास्रोत बने रहे। जोनास सोल्क के 1952 और अल्बर्ट साबिन के 1962 मे विकसित बहुतृषा के
टीकों के कारण विश्व में बहुतृषा के रोगियों मे बड़ी कमी दर्ज की गयी। [6] विश्व स्वास्थ्य संगठन, वर्दीसेफ और पारंपरिक शिशु
के नेतृत्व मे बढे टीकाकरण प्रयासों से इस बीमारी का वैश्विक समापन अब करीब ही है।
कारण
इस बीमारी का
औपसर्गिक कारण एक प्रकार का विषाणु (वायरस) होता है, जो कफ, मल, मूत्र, दूषित जल और खाद्य पदार्थों में विद्यमान रहता है; मक्खियों
और वायु द्वारा एक स्थान में दूसरे स्थान पर प्रसारित होता है और दो से पांच वर्ष
की उम्र के बालकों को ही आक्रांत करता है।] लड़कियों से अधिक यह लड़कों में हुआ
होता है और वसंत और ग्रीष्मऋतु में इसकी बहुलता हो जाती है। जिन बालकों को कम
अवस्था में ही टाँसिल का शल्यचिकित्सा गिरने लगता है उन्हें यह रोग होने की
संभावना और अधिक होती है।
लक्षण
हल्का संक्रमण
अधिकांश मामलों
में रोगी का इसके लक्षणों का पता नहीं चलता है। अन्य मामलों में लक्षण इस प्रकार
है:
फ्लू जैसा लक्षण
पेट का दर्द
अतिसार
(डायरिया)
उल्टी
गले में दर्द
हल्का बुखार
सिर में दर्द
मस्तिष्क और
मेरुदंड का मध्यम अंतर
मध्यम फिट
गर्दन की जकड़न
मांस-पेशियाँ
नरम होना और विभिन्न भागों में दर्द होना जैसे कि पिंडली में (टांग के पीछे)
पीठ में दर्द
पेट में दर्द
मांस पेशियों
में जकड़न
अतिसार
(डायरिया)
त्वचा में दोदरे
पड़ना
अधिक कमजोरी या
थकान होना
मस्तिष्क और
मेरुदंड का गंभीर संक्रमण
मांस पेशियों
में दर्द और पक्षाघात शीघ्र होने का खतरा (कार्य न करने योग्य बनना) जो सर्पाय पर
निर्भर करता है (अर्थात् हाथ, पांव)
मांस पेशियों
में दर्द, कोमलता और जकड़न (गर्दन, पीठ,
हाथ या पांव)
गर्दन न झुका
पाना, गर्दन सीधी रखना या हाथ या पांव न उठाना पाना
चिड़-चिड़ापन
पेट का फूलना
हिचकी आना
चेहरा या भाव
स्पष्टिमा न बना पाना
पेशाब करने में
तकलीफ होने या शौच में कठिनाई (कब्ज)
जुखाम होना
सांस लेने में
तकलीफ
लार गिरना
जटिलताएं
दिल की मांस
पेशियों में सूजन, कोमा, मृत्यु
इस बीमारी का
उपसर्ग होने के 4 से 12 दिन के पश्चात लक्षण प्रकट हुआ करते हैं। सर्वप्रथम बच्चों में शिरशूल,
वामन, ज्वर, अनिद्रा,
चिड़चिड़ापन, सर और गर्दन पर तनाव और गले में
घाव के लक्षण दिखाई देते हैं। इन लक्षणों के प्रकटन के दो दिनों के पश्चात इस
बीमारी के सर्वव्यापी लक्षण दृष्टिगोचर होते हैं, जिन्हें दो
वर्गों में विभाजित किया जाता है; (1) पशात्यायन (पैरालिटिक)
(2) अपक्षयज्ञ (गैर-पारलौकिक)
अपक्षयज्ञ भाव
यह अवस्था तब
उत्पन्न होती है जब इसके उपसर्ग अग्रश्रृंग कोशिकाएँ (सींग कोशिकाएँ) तक केवल
पहुँचकर रुक जाती हैं। इसके प्रमुख लक्षण में रोगी एक एक सर, माला, हाथ पैर और पीठ में दर्द
बताता है। उसको वमन, विरेचन और मांसपेशियों में आक्षेप होता
है। ज्वर 103 डिग्री तक हो जाता है और मस्तिष्क आवरण में
तानिका क्षोभ (मेनिंगियल जलन) होता है।
पशगथि यम
यह अवस्था
अपशाघात्मक अवस्था के तत्काल बाद ही आरंभ हो जाती है, जिसके अंतर्गत ऐच्छिक सिद्धियाँ पक्षाघातग्रस्त हो
जाती हैं। इसमें मुख्यत: पैर आक्रांत होते हैं। इसको लोअर मोटर न्यूरॉन पक्षाघात
(लोअर मोटर न्यूरोन पैरालिसिस) कहते हैं, जो आगे चलकर
स्तब्धसक्थि संस्तंभ (स्पास्टिक पैरापलेजिया) का रूप ग्रहण कर लेता है। कभी एक पैर
तो कभी एक हाथ अचक्रांत हो जाता है। गरदन और पीठ की मांसपेशियों में ऐंठन (ऐंठन)
होती है, और रोगी को कोष्ठबद्धता रहती है। वैसे तो शरीर की
सभी मांसपेशियों को छूने, या संधियों में हलचल पैदा होने,
के कारण तीव्र वेदना होती है।
प्रकार
उपर्युक्त
स्पर्नल तंत्रिका प्रकार (रीढ़ की हड्डी के प्रकार) के अतिरिक्त इस रोग के और भी
प्रकार होते हैं:
(क)
मस्तिष्क वृत्ति (ब्रेन स्टेम) किस्म - इसमें मस्तिष्क की सातवीं; छठी और तीसरी तंत्रिका मुख्य रूप से आक्रांत होती हैं, जिसके फलस्वरूप रोगी को भोजन नलीने और सांस लेने में कष्ट होता है और हृदय
की गति की अनियमितता हो जाती है।
(ख)
न्यूराइटी (न्यूरिटिक) किस्म - इसके अंतर्गत हाथ और पैर में उग्र स्वरूप का दर्द
होता है। कुछ घंटों में सांस लेने में मांसाहारी का पक्षाघात होता है और रोगी की
मृत्यु हो जाती है।
(ग)
पासस् प्रयत्न (सेरेबेलर) किस्म - इसमें रोगी को अत्यंत तीव्र शिरशुल, भ्रमिन (सिर का चक्कर) वमन और वाणी संबंधी विकार हो जाता है।
(घ)
प्रमस्तिश्नल (सेरेब्रल) किस्म - इसका प्रारंभ सर्वांग आक्षेप के रूप में होता है,
जो कई घंटों तक रहता है और अंत में इसके कारण अर्धांग पक्षाघात
(हेमटेजिया) और सक्थथ संस्तंभ (पैरापलेजिया) होता है। साथ ही साथ कई प्रकार के
मानसिक विकार भी उत्पन्न हो जाते हैं।
उपद्रव
आक्रांत
सिद्धांतों को स्थायी रूप से पक्षाघातग्रस्त हो जाता है। इस बीमारी के मृदु आक्रमण
के अंतर्गत रीढ़ की हड्डी से या तो एक तरफ शरीर का रुझान हो जाता है, जिसे पार्श्वकुब्जता (स्कोलियोसिस), कहते हैं, या आगे की तरफ प्रवृत्ति हो जाती है,
जिसे कुब्जता (केफोसिस) कहते हैं। आक्रांत भाग की कविताओं सुचारु
रूप से नहीं उगने और हाथ पैर की क्रियाओं में टेढ़ी हो जाती हैं। सिद्धियाँ अंत
में अत्यधिक कमजोर हो जाती हैं।
उपचार
इसके
प्रतिरोधात्मक उपचार के निमित्त एक प्रकार की टीका (टीका) का प्राप्तकर्ता किया है, जिसका अंत: पेशी इंजेक्शन के रूप में प्रयोग करते
हैं। अन्य उपचार के अंतर्गत खाद्य और पेय पदार्थ को मक्खियों और इसी प्रकार के
अन्य जीवों से दूर रखना चाहिए और इसके लिए डी। डी। टी। । प्रयोग अत्यंत लाभकारी
है। स्कूल में और बोर्डिंग हाउस में ज्यादातर बच्चे आक्रांत होते हैं, इसके लिए उनका किसी भी प्रकार से पृथक्करण आवश्यक है। रोगग्रस्त बच्चे को
ज्वर उतरने के बाद कम से कम तीन सप्ताह तक अलग-अलग रखना चाहिए। उसके मल मूत्र और
शरीर से निकले अन्य उपसर्ग की निकासी रखना चाहिए। अन्य ओषधिजन्य उपचार के लिए किसी
योग्य चिकित्सक की राय लेना सर्वोत्तम है।
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