हरिशंकर परसाई
(Harishankar Parsai)
जन्म- 22 अगस्त, 1922, (होशंगाबाद, मध्य प्रदेश);
मृत्यु- 10 अगस्त,1995,(जबलपुर)
हिंदी के प्रसिद्ध लेखक और व्यंग्यकार थे। ये हिंदी के पहले
रचनाकार थे, जिन्होंने व्यंग्य को विधा
का दर्जा दिलाया और उसे हल्के-फुल्के मनोरंजन की परंपरागत परिधि से उबारकर समाज के
व्यापक प्रश्नों से जोड़ा। उनकी व्यंग्य रचनाएँ हमारे मन में गुदगुदी ही पैदा नहीं
करतीं, बल्कि हमें उन सामाजिक वास्तविकताओं के आमने-सामने खड़ा
करती हैं, जिनसे किसी भी व्यक्ति का
अलग रह पाना लगभग असंभव है। लगातार खोखली होती जा रही हमारी सामाजिक और राजनीतिक
व्यवस्था में पिसते मध्यमवर्गीय मन की सच्चाइयों को हरिशंकर परसाई ने बहुत ही निकटता
से पकड़ा है। सामाजिक पाखंड और रूढ़िवादी जीवन–मूल्यों की खिल्ली उड़ाते हुए उन्होंने सदैव विवेक और
विज्ञान सम्मत दृष्टि को सकारात्मक रूप में प्रस्तुत किया है। उनकी भाषा-शैली में
एक ख़ास प्रकार का अपनापन नज़र आता है।
18 वर्ष की उम्र में वन विभाग में नौकरी। खंडवा में 6 महीने
अध्यापन। दो वर्ष (1941-43) जबलपुर में स्पेस ट्रेनिंग कालिज में शिक्षण की उपाधि
ली। 1942 से वहीं माडल हाई स्कूल में अध्यापन। 1952 में उन्होंने सरकारी नौकरी
छोड़ी। 1953 से 1957 तक प्राइवेट स्कूलों में नौकरी। 1957 में नौकरी छोड़कर
स्वतन्त्र लेखन की शुरूआत। जबलपुर से 'वसुधा' नाम की साहित्यिक मासिकी निकाली, नई दुनिया में 'सुनो भइ साधो', नयी कहानियों में 'पाँचवाँ कालम' और 'उलझी–उलझी' तथा कल्पना में 'और अन्त में' इत्यादि कहानियाँ, उपन्यास एवं निबन्ध–लेखन के बावजूद मुख्यत: व्यंग्यकार के रूप में विख्यात।
परसाई मुख्यतः व्यंग -लेखक है, पर उनका व्यंग केवल मनोरजन के लिए नही है। उन्होंने अपने
व्यंग के द्वारा बार-बार पाठको का ध्यान व्यक्ति और समाज की उन कमजोरियों और
विसंगतियो की ओर आकृष्ट किया है जो हमारे जीवन को दूभर बना रही है। उन्होंने
सामाजिक और राजनीतिक जीवन में व्याप्त भ्रष्टाचार एवं शोषण पर करारा व्यंग किया है
जो हिन्दी व्यंगय -साहित्य में अनूठा है। परसाई जी अपने लेखन को एक सामाजिक कर्म
के रूप में परिभाषित करते है। उनकी मान्यता है कि सामाजिक अनुभव के बिना सच्चा और
वास्तविक साहित्य लिखा ही नही जा सकता। परसाई जी मूलतः एक व्यंगकार है। सामाजिक
विसंगतियो के प्रति गहरा सरोकार रखने वाला ही लेखक सच्चा व्यंगकार हो सकता है।
परसाई जी सामायिक समय का रचनात्मक उपयोग करते है। उनका समूचा साहित्य वर्तमान से
मुठभेड़ करता हुआ दिखाई देता है। परसाई जी हिन्दी साहित्य में व्यंग विधा को एक नई
पहचान दी और उसे एक अलग रूप प्रदान किया, इसके लिए हिन्दी साहित्य उनका हमेशा ऋणी रहेगा।
भाषा-शैली-
परसाईजी एक सफल व्यंग्कार हैं। वे व्यंग्य के अनुरूप ही
भाषा लिखने में कुशल हैं। इनकी रचनाओं में
भाषा के बोलचाल के शब्दों, तत्सम शब्दों तथा विदेशी भाषाओं के शब्दों का चयन भी उच्च
कोटि का है। लक्षणा एवं व्यंजना के कुशल प्रयोग इनके व्यंग्य को पाठक के मन तक
पहुँचाने में समर्थ रहे हैं। इनकी भाषा में यत्र-तत्र मुहावरों एवं कहावतों का
प्रयोग हुआ हे, जिससे भाषा में प्रवाह आ
गया है। परसाईजी की रचनाओं मं व्यंग्यात्मक शैली, विवरणात्मक शैली तथा कथानक शैली के दर्शन होते हैं।
लेखक-
परसाई जी शक्लोत्तर युग के हिन्दी साहित्य के श्रेष्ठ
व्यंग्कार के रूप में प्रसिद्ध हैं। इनके व्यंग्य राजनीतिक कमजोरियो, विसंगतियों, विषमताओं, विडम्बनाओं, आडम्बरों और छल-फरेबों आदि पर करारी चोट करते हैं। आधुनिक
काल में वंयग्य विधा को नयी ऊँचाइयॉं देकर उसे समृद्ध एवं प्रभवशाली बनाने वाले
प्रतिष्ठित व्यंग्य-लेखक के रूप में परसाई जी को सदैव याद किया जायेगा।
प्रमुख रचनाएं-
कहानी–संग्रह: हँसते हैं रोते हैं, जैसे उनके दिन फिरे, भोलाराम का जीव।
उपन्यास: रानी नागफनी की कहानी, तट की खोज, ज्वाला और जल।
संस्मरण: तिरछी रेखाएँ।
लेख संग्रह: तब की बात और थी, भूत के पाँव पीछे, बेइमानी की परत, अपनी अपनी बीमारी, प्रेमचन्द के फटे जूते, माटी कहे कुम्हार से, काग भगोड़ा, आवारा भीड़ के खतरे, ऐसा भी सोचा जाता है, वैष्णव की फिसलन, पगडण्डियों का जमाना, शिकायत मुझे भी है, सदाचार का ताबीज, विकलांग श्रद्धा का दौर, तुलसीदास चंदन घिसैं, हम एक उम्र से वाकिफ हैं।
सम्मान-
विकलांग श्रद्धा का दौर के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से
सम्मानित।
निधन-
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